प्रयागराज / वाराणसीमहाकुंभ 2025राष्ट्रीय

महाकुंभ मेले में बने पीपे के पुल जानें का इतिहास,ढाई हजार साल पुरानी है ये तकनीक

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प्रांजल केसरी
प्रयागराज। विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन महाकुंभ सनातन धर्म के सबसे बड़े और सबसे पवित्र धार्मिक आयोजनों में से एक है।महाकुंभ न केवल भारतीय संस्कृति और अध्यात्म का उत्सव है,बल्कि ये दुनिया में सनातन धर्म की महत्ता को बताता है।संगम और 4,000 हेक्टेयर में फैले अखाड़ा क्षेत्र के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में पीपे के पुल काम कर रहे हैं।पीपे के पुल ढाई हजार साल पुरानी फारसी तकनीक से प्रेरित हैं।तीस पुलों के निर्माण के लिए जरूरी पीपे बनाने के लिए 1 हजार से अधिक लोगों ने एक साल से अधिक समय तक प्रतिदिन कम से कम 10 घंटे काम किया।
2,200 से अधिक पीपों का इस्तेमाल किया गया
महाकुम्भ में वाहनों,श्रध्दालुओं,साधु संतों और श्रमिकों की आने जाने के सुविधाजनक बनाने के लिए पुलों के निर्माण में 2,200 से अधिक काले तैरते लोहे के कैप्सूलनुमा पीपों का इस्तेमाल किया गया है। इसमें प्रत्येक पीपे का वजन पांच टन है। यह इतना ही भार सह सकता है।
ये पुल महाकुंभ का अभिन्न अंग
ये पुल संगम और अखाड़ा क्षेत्रों के बीच महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में काम कर रहे हैं।ये पुल महाकुंभ का अभिन्न अंग हैं,जो श्रद्धालुओं के सैलाब के लिए जरूरी है।इनकी निरंतर निगरानी की आवश्यकता होती है ताकि 24 घंटे श्रध्दालुओं के  आने जाने और सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।प्रत्येक पुल पर सीसीटीवी कैमरे लगाए हैं और एकीकृत कमान और नियंत्रण केंद्र के माध्यम से फुटेज की लगातार निगरानी की जाती है।
पहली बार 480 ईसा पूर्व में बनाया गया पीपे का पुल
पीपे के पुल पहली बार 480 ईसा पूर्व में तब बनाए गए थे,जब फारसी राजा ज़ेरेक्सेस प्रथम ने यूनान पर आक्रमण किया था।चीन में झोउ राजवंश ने भी 11वीं शताब्दी ईसा पूर्व में इन पुलों का इस्तेमाल किया था। भारत में इस प्रकार का पहला पुल अक्टूबर 1874 में हावड़ा और कोलकाता के बीच हुगली नदी पर बनाया गया था।ब्रिटेन के इंजीनियर सर ब्रैडफोर्ड लेस्ली द्वारा डिजाइन किए गए इस पुल में लकड़ी के पीपे लगाए गए थे। एक चक्रवात के कारण क्षतिग्रस्त होने के कारण अंततः 1943 में इसे ध्वस्त कर दिया गया था। इसके स्थान पर रवींद्र सेतु का निर्माण किया गया, जिसे अब हावड़ा ब्रिज के नाम से जाना जाता है।

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