मित्रता में समर्पण का भाव होना बहुत जरूरी

राघव कुमार,सह संयोजक
विद्या भारती गोरक्ष प्रान्त
मित्रता में समर्पण का मतलब है अपने स्वार्थ से परे जाकर,अपने मित्र की भलाई के लिए,उनकी मदद के लिए या उनकी खुशी के लिए कुछ करना। सच्ची मित्रता में समर्पण अहंकार और स्वार्थ पर भारी पड़ता है और सेवा और विश्वास पर आधारित होती है।
समर्पण का अर्थ:
मित्रता में समर्पण का मतलब है अपने आराम और सुविधा के बजाय, मित्र की ज़रूरतों और भावनाओं को प्राथमिकता देना। इसका अर्थ है,मित्र को समझने की कोशिश करना,उनकी भावनाओं को सम्मान देना और उनकी सहायता के लिए तैयार रहना। सच्ची मित्रता में समर्पण केवल एक दिखावा नहीं होता है,बल्कि यह एक प्राकृतिक भावना होती है जो मित्र के प्रति प्रेम और विश्वास से पैदा होती है। यह समर्पण मित्र के सुख-दुख में साथ रहने,उनकी गलतियों को माफ करने और उनके विकास में मदद करने की इच्छा से जुड़ा होता है।
समर्पण के उदाहरण:
समर्पण के उदाहरणों में,मित्र को मुश्किल समय में सहारा देना, उनकी गलतियों से सीखना और उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करना, उनके साथ मिलकर काम करना और उनके लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करना शामिल है।
समर्पण और स्वार्थ:
सच्ची मित्रता में,समर्पण स्वार्थ पर भारी पड़ता है। इसका मतलब है कि अपने मित्र की भलाई के लिए,अपने स्वार्थों को त्यागना और उनकी जरूरतों को प्राथमिकता देना।
उदाहरण:
सुदामा और कृष्ण की मित्रता,भागवत कथा में समर्पण का एक उदाहरण है,जहां सुदामा ने अपनी गरीबी और दीनता के बावजूद कृष्ण के प्रति समर्पण दिखाया और कृष्ण ने भी सुदामा को अपना दोस्त मानते हुए उनकी मदद की। इसलिए मित्रता में छल प्रपंच से हमेशा दरिद्रता रहता है।