संपादकीय

गांवों से हो रहे पलायन की प्रवृत्ति—भविष्य की एक घातक दिशा

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राघव कुमार
भारत की आत्मा उसके गांवों में बसती है। सदियों से ग्रामीण संस्कृति,
कृषि पर आधारित जीवनशैली और सामाजिक समरसता इस देश की रीढ़ रही है। किंतु वर्तमान समय में यह स्थिति तेजी से बदल रही है। युवा पीढ़ी अपने पैतृक गांवों को छोड़कर नगरों की ओर पलायन कर रही है और यह प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन तीव्र होती जा रही है। यदि इस दिशा में गंभीरता से विचार न किया गया,तो यह भविष्य में घातक परिणाम ला सकती है।

गांवों से हो रहे इस निरंतर पलायन के पीछे आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक कारण निस्संदेह मौजूद हैं। नगरों में बेहतर शिक्षा, रोजगार और चिकित्सा सुविधाओं का आकर्षण युवाओं को अपनी जड़ों से तोड़कर शहरी जीवन की ओर खींच रहा है। प्रारंभ में यह परिवर्तन विकास का प्रतीक प्रतीत होता है, किंतु दीर्घकालीन दृष्टि से यह केवल असंतुलन ही नहीं, बल्कि विनाश की भूमिका भी बन सकता है।

इस प्रवृत्ति का सबसे प्रत्यक्ष दुष्परिणाम यह है कि गांव धीरे-धीरे जनशून्य होते जा रहे हैं। खेत परती पड़ रहे हैं,ग्रामीण उद्योग समाप्त हो रहे हैं और सामाजिक संरचना बिखरती जा रही है। चौपाल की संस्कृति,सामूहिकता का भाव,पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली विलुप्ति की कगार पर हैं। जो गांव कभी आत्मनिर्भरता और साझेपन का उदाहरण थे,आज वे उपेक्षा और खालीपन का प्रतीक बनते जा रहे हैं।

वहीं दूसरी ओर,नगरों पर जनसंख्या का अत्यधिक बोझ पड़ रहा है। सीमित संसाधनों में बढ़ती भीड़,बेरोजगारी,आवास संकट, प्रदूषण और सामाजिक विषमता जैसी समस्याओं को जन्म दे रही है। यह स्थिति न नगर के लिए शुभ है, न ग्राम के लिए।

यदि यह प्रवृत्ति इसी गति से आगे बढ़ती रही, तो भविष्य में गांव केवल नक्शे पर शेष रह जाएंगे और उनकी पहचान इतिहास बनकर रह जाएगी। कृषि उत्पादन में गिरावट, खाद्य संकट, पारंपरिक ज्ञान की समाप्ति और सामाजिक असंतुलन जैसी जटिल समस्याएं देश को घेर लेंगी।

अतः समय की मांग है कि इस एकपक्षीय पलायन को रोका जाए और गांवों को जीवन, सम्मान और संसाधनों से पुनः संपन्न किया जाए। सरकार को चाहिए कि वह ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग और तकनीकी विकास की ठोस योजनाएं लागू करे, ताकि युवाओं को अपने ही गांवों में भविष्य की संभावनाएं दिखाई दें।
गांवों का पलायन नहीं,पुनर्निर्माण आवश्यक है। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब भारत के गांव केवल स्मृति बनकर रह जाएंगे और यह क्षति केवल गांवों की नहीं,भारत की आत्मा की होगी। क्या मेरी व्यक्तिगत पीड़ा है या सार्वजानिक/सामाजिक ??

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